गीत -समर्पण कर रहा हूँ
उसकी आँखों को अब खुद का दर्पण कर रहा हूँ
फिर उसके सामने खुद का समर्पण कर रहा हूँजब से खुद को देखा है
उसकी निगाह से
निगाह अब फिरती नहीं
कभी भी चाह के
उसके दिल के एक पद के लिए, मैं अभ्यर्थन कर रहा हूँ
फिर उसके सामने खुद का समर्पण कर रहा हूँ
न जाने कैसा जादू है
उसकी निगाह में
मैं डूब सा जाता हूँ
उस समंदर अथाह में
इसीलिए तो उसकी निगाहों का वर्णन कर रहा हूँ
फिर उसके सामने खुद का समर्पण कर रहा हूँ
इशारों में करती है बातें
और मौन अधर रह जाते हैं
हम टकटकी निगाह से देखते हैं
और उसके दिल तक बह जाते हैं
उसके दिल में भी उसका समर्थन
कर रहा हूँ
फिर उसके सामने खुद का समर्पण कर रहा हूँ
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