माँ
मां देती आंचल की छायाप्रेम की मूरत सी सुंदर काया
अगाध प्रेम की द्योतक रही
वात्सल्य ह्रदय शोभनीय रही
रब अपने समतुल्य बनाया
मां नाम संदेशा भेजवाया
अपना सदृश्य रहने वाले
सदृश्य में माँ रुपी भगवती
डाल दिया जीवन के जंग में
शोभती है बच्चों के संग में
भूखी रह जाती खुद तो भी
मुख मलीन होने ना देती
अपने हिस्से की खिलाकर
सुख पाती सदा सदा ही
बच्चे भी मां के पल्लू में
छिपकर जन्नत के सुख पाते
मां की आंचल में कटी रातें
स्वर्ग भी फीके पड़ जाते
सिर पर जिनके आँचल आते
बच्चों !मां को तुम क्यों ठुकराते।
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