भारतीय राजनीति के संत थे ओमप्रकाश
भारतीय राजनीति या चुनावी माहौल में जब-जब ईमानदार और बेदाग राजनीतिज्ञों का जिक्र होगा तब-तब उत्तर प्रदेश,सरकार में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य मंत्री रहे पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी के मित्र स्वर्गीय ओमप्रकाश श्रीवास्तव जी की छवि स्वतः जनमानस के स्मृति में आना स्वाभाविक हैं। श्रीवास्तव जी का जन्म 03 फरवरी 1931 (स्कूलों के अभिलेखों में उनका जन्मदिवस 15 अप्रैल 1933 दर्ज हैं) को उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिला मुख्यालय से 22 किलोमीटर से दूर उनके ननिहाल बूढ़ापुर गांव (शाहगंज तहसील) में हुआ था। ढाई वर्ष की उम्र में पिता का साया उठ जाने पर नाना शिवबरत लाल ने इनकी माँ सतवंती देवी को बूढ़ापुर बुला लिया इस कारण इनका लालन-पालन ननिहाल में हुआ और पैतृक गांव रामपुर चौकिया (जौनपुर जिला) में ओमप्रकाश को रहने का अवसर बहुत कम मिला।बचपन से ओमप्रकाश पढ़ने में काफी होशियार थे पर समाजसेवा में रूचि होने के नाते पढाई पर ध्यान नहीं दें पाएं। कक्षा तीन से बारहवीं तक क्षत्रिय कॉलेज जौनपुर के बाद उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पूरी करने के दौरान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारों से प्रभावित होकर संघ से जुड़ेऔर जब महात्मा गाँधी के हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगा उसी दौरान बी.पी. सिंघल (विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यकारी अध्यक्ष हुए और अयोध्या राम मंदिर आंदोलन में बहुत चर्चित हुए) इत्यादि के साथ ओमप्रकाश को भी निरोधक नजरबंदी में जेल जाना पड़ा। उस दौरान जेल में रहकर शाखा, योग-व्यायाम सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन और लेखन कार्य इनका दिनचर्या था। इस दौरान ओमप्रकाश ने अपनी पहली कहानी बदला लिखा जिसका प्रकाशन लोकप्रिय पत्रिका माया में हुआ।
सोशलिस्ट पार्टी के नेता मधुकर दिधे भी इन्हीं दौरान गोरखपुर,सरदार नगर चीनी मिल के हड़ताल के सिलसिले में जेल में बंद थे, जेल प्रवास के दौरान मधुकर जी और श्रीवास्तव जी के बीच संघ के और सोशलिस्ट के विचारधारा पर काफी बातचीत होती। कभी-कभी ये बातचीत विवाद में तब्दील हो जाता परन्तु इसका फर्क आपसी रिश्तों पर नहीं पड़ता। इसी बहस के दौरान एक बार मधुकर दिधे ने पूछा, "ओमप्रकाश, तुम बहुत संघ का बखान करते हो तो मुझे इतना बताओं कि युवाओं की इतनी बड़ी संख्या होने पर भी संघ ने देश के आजादी में सहयोग और बँटवारे के खिलाफ विरोध दर्ज कराने में साक्रिय भूमिका क्यों नहीं निभाई?" ओमप्रकाश ने भी लोगों को संतुष्ट करने वाला रटा-रटाया सा जवाब दिया कि संघ उस समय शक्ति अर्जित कर रहा था। जो आज उन्हें खुद असंतुष्ट कर रहा था, इसके साथ ही ऐसी बहुत सी बातें ओमप्रकाश के मन को कचोटती रही जो धीरे-धीरे उन्हें संघ से दूर कर रही थी। इसी दौरान सरकार ने एक प्रस्ताव दिया कि यदि निरोधक नजरबंदी में बंद छात्र लिखित आश्वाशन दें कि वह संघ छोड़ देंगे तो उनको जेल से रिहा किया जा सकता हैं। ओमप्रकाश के कई मित्रों संग रिश्तेदारों ने उन्हें इस अवसर का लाभ भुनाने को कहा पर ओमप्रकाश मन ही मन संघ छोड़ने का निश्चय कर चुके थें। उन्हें इस बात का अहसास भी था कि यदि उन्होंने ऐसा किया तो संघ के लोग बाद में प्रचार करेंगे कि ओमप्रकाश ने सरकार और जेल के डर के कारण संघ छोड़ दिया। अतः अपने स्वाभिमान के खातिर ओमप्रकाश ने सजा के बचे कुछ दिन और जेल में रहने का सोचा। जब इसकी भनक उनके परिचितों को लगी तो वह लोग उनके माँ के द्वारा उनपर दबाव डालना चाहा। इस पर साहसी माँ ने जवाब दिया कि इतने महीने ओमप्रकाश जेल में रह चुका है, कुछ महीनों के लिए माफ़ी माँगेगा तो लोगों को क्या मुँह दिखाऊंगी। प्रणाम करता हूँ मैं उस माँ की सोच को जो पति का साया न रहने पर भी बेटे के साहस को कमजोर नहीं होने देती और लोगों के सवालों के प्रतिउत्तर में कहती कि मेरा बेटा चोरी, डकैती में जेल नहीं जाता बल्कि देश और समाज के कल्याण खातिर जेल जाता हैं।
ओमप्रकाश को बिना बताएं उनकी माँ और भाभी ने उनकी शादी सुशीला से तय कर दी। पहले तो ओमप्रकाश ने आजीवन शादी न करने पर अड़े रहें पर माँ के ममता के सामने उन्हें झुकना पड़ा और जून 1955 में उनकी शादी सुशीला से हुई। सुशीला जी के बारें में जितना लिखूं उतना कम होगा। भारतीय राजनीति में ओमप्रकाश के विचारधारा और संघर्ष जनमानस को जो राह दिखायेगा उसका श्रेय सुशीला को भी जायेगा। सुशीला जी अपने नाम के अनुकूल ही थी, पति का जीवन समाज के प्रति समर्पति होने के कारण पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को अच्छी तरह ना निभा पाने पर जब कोई कुछ कहता तो सुशीला हमेशा पति का साथ देती और कहती भले मेरे पति नौकरी नहीं करते पर वो बड़े बुद्धिमान और अच्छे वक्ता हैं। काफी सम्मानित लोगों के बीच उनका मान-सम्मान हैं, ऐसा कह अपने पति कि इज्जत रखती। ठीक ही कहते है कि एक व्यक्ति को आदर्श और समाज का प्रेरणा बनने में सबसे ज्यादा तकलीफ उसके परिवार को हो उठाना पड़ता हैं (चंदशेखर आजाद, भगत सिंह, सुभाष चंद बोस जैसे अनगिनत परिवार इसके उदाहरण हैं), ठीक वैसे ही ओमप्रकाश को ओमप्रकाश बनने के सफर में उनका परिवार भी उन तकलीफों से अछूता नहीं रहा। किसी के सामने हाथ फैलाने से पति और परिवार का मान-सम्मान कम ना हो इस उद्देश्य से सुशीला ने 1956 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के बालिका विद्यालय फिर लखनऊ में आर्य बालिका विद्यालय में नौकरी किया और पति के राजनीति शिखर पर होने पर भी गरीब और असहाय बच्चों को निःशुल्क शिक्षा सहित अन्य सुविधा प्रदान करती रही। सच कहूं तो ओमप्रकाश श्रीवास्तव के संस्मरण संघर्ष दर संघर्ष में सुशीला के मधुर और सुशील स्वाभाव के बारें में जितना पढ़ा उससे ज्यादा अपने पिता श्री रामेश्वर प्रसाद सिंह (हरदासीपुर, चंदवक, जौनपुर) सहित अन्य लोगों से सुनाता था कि जब भी हम लोग मंत्री जी (ओमप्रकाश) के जेजे कालोनी (जौनपुर कचहरी) आवास पर जाते तो सुशीला चाची कभी भी हम कार्यकताओं और अपने पुत्र मनोज (अधिवक्ता,जौनपुर) में कोई भेदभाव नहीं करतीं। सच कहूं तो कठिनाई के उस दौर में सुशीला दादी के हौसले भरे संघर्ष और आज के इस परिवेश में खुद के शादी के लिए आ रहे लड़कियों के विचारों को तौलता हूँ तो ह्रदय में सुशीला दादी कि प्रतिमूर्ति दुर्गा और अन्नपूर्णा जैसी उभरती हैं।
सुशीला के संघर्षपूर्ण कुशल पारिवारिक प्रबंधन के बावजूद श्रीवास्तव पर एक बेटे और पांच बेटियों के परिवार चलने का दबाव भी आता रहा। पार्टी से तनख्वाह रूप में मिलने वाले 75 रूपये में से 10 से 15 रुपए बचाकर या फिर कभी-कभी चंदशेखर जी से कुछ कर्ज लेकर मुश्किल को सुशीला को कुछ पैसे भेज पाते। इन्हीं बीच कुछ पारिवारिक लोगों के सलाह पर ओमप्रकाश वकालत कि पढाई करके जौनपुर में वकालत के साथ राजनीति भी करने लगे। परन्तु सार्वजानिक जीवन होने के कारण परचितों से वकालत की फ़ीस लेना भी उन्हें अनुचित लगने लगा। खैर जैसे-तैसे वकालत चलती रही इसी दौरान ओमप्रकाश ने जौनपुर में जमीन खरीदकर मकान बना लिया (बताने वाले ये भी बताते है उस मकान पर उसके बाद कोई निमार्ण नहीं हुआ चाहे ओमप्रकाश बाबू मंत्री रहे हो या विधायक)। उन्हें वकालत के साथ राजनीति करना काफी मुश्किल हो रहा था, इस पर एक पुराने मित्र दयानन्द सहाय ने उन्हें लखनऊ में अपने कम्पनी में रेजिडेंट डायरेक्टर का ऑफर दिया, शुरूआत में श्रीवास्तव जी ने उसे ठुकरा दिया पर मित्र उदित (उस समय के राजस्व मंत्री) सहित चंदशेखर जी के दबाव में उन्हें हामी भरनी पड़ी और वकालत छोड़ लखनऊ वापस आना पड़ा, कम्पनी द्वारा उन्हें मिला आवास प्रदेश के नेताओं का अड्डा बना।
चंद्रशेखर सहित अन्य कई समाजवादियों के कांग्रेस में आने के साथ ओमप्रकाश भी कांग्रेस से जुड़ गए और 1974 में पहली बार संगठन कांग्रेस के प्रत्याशी रामलगन सिंह को चुनाव हराकर जौनपुर विधानसभा से विधायक बने। उत्तर प्रदेश में हेमवंतीनदन बहुगुणा की सरकार बनी और कुछ राजनीति समीकरणों के कारण बहुगुणा जी चाहते हुए भी अपने मंत्रिमंडल में ओमप्रकाश को शामिल नहीं कर सकें। बहुगुणा जी ओमप्रकाश से विशेष स्नेह रखते थे कई बार मीटिंग में यहाँ तक कह दिया करते थे कि मैं चाहते हुए भी ओमप्रकाश को मंत्री नहीं बना सका पर आप लोग इन्हें वो सम्मान जरूर दिया करें।
इलहाबाद हाईकोर्ट के न्यायधीश जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा 12 जून 1975 को लोकबंधु राजनारायण के याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए इंदिरा गाँधी के चुनाव को रद्द करते हुए उन्हें अगले 6 वर्षों तक चुनाव न लड़ने की बात कही। जिससे देश में आपातकाल लग गया जिसमें जयप्रकाश नारायण और चंद्रशेखर सहित कई नेता नजरबंद हुए और जेल भेजे गए। इस आपातकाल में कईयों के दोमुखी चरित्र का भी दर्शन हुआ मतलब जो साथ थे उनमें से कई सत्ता के लालच में साथ छोड़ते नजर आये कुछ ऐसे विश्वासपात्र भी थे जिनका साथ धुव्र तारे जैसा अटल रहा। अपने छात्र जीवन में जब कभी मैं ओमप्रकाश बाबा के आवास पर मिलाने जाता और बाबा अपने राजनीति अनुभव और संस्मरण सुनाते तो आपातकाल के उदहारण से मुझे भविष्य में सजग रहने का नसीहत भी देते और कहते कि "विपरीत परिस्थिति में जिन्हें हम अपना समझते है उनमें से बहुतों का साथ सबसे पहले छूटता है और जिन्हें पराया समझते है वह कभी-कभी हमारे विचारों से प्रभावित हो हमारे लिए आजीवन समर्पित हो जातें हैं।" अपने छोटे के अनुभव से कहूं तो यदि बदलते परिवेश (राजनीतिक,सामाजिक या पारिवारिक) में मौकापरस्त लोगों के परखने का अनुभव लेना हो तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी की लिखी मेरी जेल यात्रा जरूर पढियेगा।
खैर इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी,पर कहते है कि चार भाइयों का परिवार साथ लेकर चलना मुश्किल होता है तो जरा सोचिये कई राजनीतिक दलों को एक कुनबे में बांधे रखना कितना मुश्किल रहा होगा। अंत में वह समय भी आया जब जनता पार्टी का कुनबा धराशाही हुआ और सरकार गिर गई। उसके कुछ सालों बाद 6 जनवरी 1983 को चंद्रशेखर जी ने कन्याकुमारी से दिल्ली तक ऐतिहासिक पदयात्रा किया। जिसकी जिम्मेदारी इंद्र कुमार गुजराल, किशोर लाल, कृष्णकांत, मोहन धारिया सहित कुछ अन्य लोगों को दी गई और ओमप्रकाश जी इसके पूर्णकालिक सचिव रहे। इस पद यात्रा में देश के कई राज्यों में चंद्रशेखर जी ने भारत यात्रा ट्रस्ट की स्थापना कि और इस ट्रस्ट के सचिव ओमप्रकाश श्रीवास्तव जी मनोनीत किये गए गए।
इंदिरा गांधी के हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा के प्रति लोगों में सहानुभूति थी। श्रीवास्तव जी ने जौनपुर से चुनाव लडा परन्तु चंदशेखर जी सहित अन्य कुछ बड़े नेताओं की तरह इंदिरा लहर में पराजित हुए एवं 1988 में विधानपरिषद के लिए चुने गए। उधर केंद्र में नाटकीय ढंग से चुनी गई वीपी सिंह की सरकार ज्यादा दिन नहीं चली और 10 नवम्बर 1990 को देश ने प्रधानमंत्री के रूप में चंद्रशेखर को देखा। उस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी तथा दिल्ली और यूपी (चंद्रशेखर और मुलायम) के रिश्ते काफी अच्छे थे। चंद्रशेखर के करीबी होने के कारण 20 दिसंबर 1990 को ओमप्रकाश जी ने मंत्री पद की शपथ लिया। ये एक संयोग मात्र था की ये मंत्री पद उन्हें दिल्ली और यूपी के निकटता के कारण मिला, सच्चे अर्थों में कहूं तो इसके हकदार ओमप्रकाश जी बहुगुणा के सरकार में ही थे। ओमप्रकाश ने अपने मंत्री रूप में मिलने वाली किसी भी सेवा को नहीं लिया (जैसे इनके मित्र चंद्रशेखर जी अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में कभी प्रधानमंत्री आवास का लाभ नहीं लिया)।
दिसंबर 2006 में श्रीवास्तव जी धर्मपत्नी सुशीला दादी (दादी संबोधन इसलिए क्योंकि मेरे पिता उन्हें चाची कहा करते थे) के देहांत से उबरे नहीं थे कि 8 जुलाई 2007 में उनके परम मित्र एवं पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी का भी देहांत हो गया। बतौर ओमप्रकाश तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने श्रीमती सोनिया गांधी को सुझाव दिया कि चंद्रशेखर जी का अंतिम संस्कार बलिया या भोंडसी (भारत यात्रा केंद्र) पर किया जाए (जैसे पूर्व पीएम नरसिम्हा राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं हुआ)। जब ये बात ओमप्रकाश को पता चला तो उन्होंने रामविलास पासवान और लालू से मिलकर उनसे कहा कि चंद्रशेखर जी आपके नेता है और उनके अंतिम संस्कार का इंतजाम सम्मान के साथ राजघाट पर कराएं। खैर, जैसे-तैसे सरकार तैयार हुई चंद्रशेखर जी का अंतिम संस्कार राजघाट पर किया गया।
चंद्रशेखर जी के मृत्यु उपरांत बलिया से नीरज शेखर के चुनाव जितने के बाद ओमप्रकश जी सक्रिय राजनीति से दूर से हो गए और अपना ज्यादातर समय जौनपुर, लखनऊ सहित कुछ अन्य जगहों पर पुराने साथियों द्वारा आयोजित कार्यकर्मों में देने लगे और बढ़ती उम्र में भी इनके पढ़ने-लिखने का शौक जारी रहा।
इस दौरान मैं अपनी उम्र में समझने परखने के दौर में आ चुका था। घर में समाजसेवी पिता द्वारा अधिकतर ओमप्रकाश बाबा और चंदशेखर सहित अन्य नेताओं जैसे जार्ज फर्नाडीज (पूर्व केंद्रीय मंत्री), राम कृष्ण हेंगड़े (पूर्व मुख्यमंत्री,कर्नाटक) सहित अन्य कई पूर्व एवं वर्तमान नेताओं से मुलकात और संघर्ष के किस्से सुनता रहता था। लगभग ढाई से तीन दशक पहले मेरे पिता बीजेपी में आ गए (इसका एक कारण ये भी था कि परिवार के कुछ अन्य सदस्य जनसंघ से जुड़े थे) पर ओमप्रकाश बाबा, चंदशेखर जी सहित अन्य कई नेताओं के संघर्ष की कहानियों के साथ अपनी राजनितिक सफर का वाक्या मुझे सुनाते रहते थे और कहते कि जब तुम छोटे थे तो चंदशेखर जी से मिले हो, भविष्य में तुम किसी भी क्षेत्र में रहना इनके जैसा सादगीपूर्ण जीवन उच्च विचार को अपनाते हुए लोगों के साथ अपने व्यक्तिगत सबंधों को हमेशा महत्त्व देना भले उस आदमी की परिस्थिति और हालात जैसे भी रहें। इन सभी के बीच मेरा दाखिला जौनपुर प्रसाद पॉलिटेक्निक में हुआ और घर से रोज के 80 किलोमीटर के सफर के साथ पढ़ाई का सफर भी चलता रहा। जब क्लास नहीं चलती और पता होता ओमप्रकाश बाबा (पूर्व मंत्री, उत्तर प्रदेश) जौनपुर में हैं तो कॉलेज से कुछ किलोमीटर के दूर उनके आवास पर पहुँच जाता मिलने और फिर उनके आशीर्वाद संग पुराने राजनितिक किस्सें भी सुनता। पहले भी मुलाकात होती थी पर इन तीन सालों में काफी करीब हो गया ओमप्रकाश बाबा के,मुझे कभी ये नहीं लगा कि मैं किसी राजनेता के घर आया हूँ लगता अपने दादा के पास बैठा हूँ (अपने दादा को मैंने नहीं देखा हैं, पिता जी के दो साल उम्र में,दादा जी का देहांत हो गया था)। पढाई ख़त्म कर नौकरी के सिलसिले में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र के बाद वर्तमान में माँ शारदा की नगरी मैहर, मध्य प्रदेश में अभियंता पद पर कार्यरत हूँ। जहाँ भी रहा मेरी ओमप्रकाश बाबा से बात होती रही और छुट्टियों दिनों में उनके जौनपुर में रहने पर मुलाकात भी। जहाँ भी रहा यदि वहाँ कोई ओमप्रकाश बाबा का परिचित होता तो मुझे उससे मिलने को कहते और आज भी उनमें से कइयों का स्नेह मुझे मिलता रहता हैं।
फरवरी 2020 में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी के करीबी रहे और भारत यात्रा ट्रस्ट के ट्रस्टी पयागीपुर, जिला बाराइच के सूर्य कुमार सिंह (जिन्हें चाचा कह के सम्बोधित करता हूँ) के बेटी के शादी में लखनऊ आना हुआ। देश के बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ हस्ती भी इस शादी के साक्षी रहें । अगले दिन जब जानकारी हुई की ओमप्रकाश बाबा (पूर्व मंत्री, उत्तर प्रदेश) लखनऊ में तब मैंने उनसे मिलने की इच्छा बताई और उनके लखनऊ आवास का पता पूछा। उम्र के 80 साल के पड़ाव पर पहुंच रहे ओमप्रकाश जी के शब्द फोन पर स्पष्ट सुनाई नहीं पड़ रहे थे। जैसे-तैसे उनके आवास पर पहुंचा, वहां जाकर आचर्यचकित हुआ लखनऊ का आवास तो जौनपुर आवास से भी साधारण, बिजली की वायरिंग, मकान की बनावट सब पुराने ज़माने की तरह। बाबा शरीर से काफी दुबले हो चुके थे पर स्मरण शक्ति आज भी पहले जैसी थी। उन्होंने कहा खाना खा लो मैंने कहा कि खाकर आया हूं तभी अंदर से उनकी बेटी (बुआ) कि आवाज आई बाबू जी भी नहीं खाएं है बोल रहे थे अंकुर आ रहा हैं उसके साथ में खाएंगे। इतना सुनते ही मेरे आखों में आँसू आ गए की देश की इतनी बड़ी पहचान (उत्तर प्रदेश के कई मुख्यमंत्री के विश्वासपात्र और देश के तीन प्रधानमंत्री के करीबी रहें) एक मामूली अंकुर का इन्तजार कर रहा और मैंने भी तुरंत खाने कि हाँमी भर दी और कुछ समय तक हाल-चाल, पुराने किस्से सुनने के बाद उनका आशीर्वाद लेकर विदा हुआ।
अगस्त 2021 में छुट्टियों में मैहर से गाँव आया था उसी समय इनके पुत्र मनोज चाचा (अधिवक्ता जौनपुर) से जानकारी हुईं की कुछ दिन से बाबा जौनपुर में हैं फिर मैंने कहा कल बाबा से मिलने आऊंगा। परन्तु कुछ पारिवारिक विवादों के कारण उस दिन नहीं जा सका। 01 सितम्बर को पुनः सुबह फ़ोन किया की आज बाबा से मिलने आ रहा और दोपहर का खाना उनके साथ खाऊंगा। इसकी सुचना गृह जनपद के साहित्यकार रंगनाथ भैया को भी दिया कि आज आपके घर भी आऊंगा। सुबह के लगभग साढ़े सात बजे होंगे और अपने बाजार चंदवक पहुंचते ही रंगनाथ भैया का फ़ोन आया कि नेता जी (ओमप्रकाश जी) नहीं रहें। भरोसा ही नहीं हुआ कि दो घंटे पहले तक चलता फिरता इंसान अचानक से...। सच कहूं तो उस दिन मुझे एक दिन के देरी का महत्व समझ में आया जिससे कारण मेरी बाबा (पूर्व मंत्री) से आखिरी मुलाकात जीवन भर के लिए नहीं हो पाया।
खैर इसकी पुष्टि उनके पुत्र मनोज चाचा से होने के बाद मैंने कुछ अन्य परिचितों को भी सूचना दिया और भारतीय राजनीति के संत पूर्व मंत्री, उत्तर प्रदेश ओमप्रकाश श्रीवास्तव (बाबा) के पार्थिव शरीर के दर्शन को उनके आश्रम को चल पड़ा। बाबा के अंतिम दर्शन के साथ मैंने उस आश्रम को भी प्रणाम किया जो एक पूर्व मंत्री के आवास तो था पर आज भी भौतिकता से परे था। आजीवन राजनीति में संत जैसे रहें ओमप्रकाश जी को नमन करने के साथ भगवान से विनती करूँगा की उनकी आत्मा को अपने चरणों में जगह दें और भारतीय राजनीति में लोग ओमप्रकाश से आजीवन प्रेरणा लेते रहें ।
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