सहनशीलता- सुधीर श्रीवास्तव
सहनशीलता
कैसा जमाना आ गया हैज्यों ज्यों शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है
हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं,
हमारी सहनशीलता दम तोड़ रही है
हमारी उन्नति की
ये कैसी कहानी कह रही है?
आज हम संभ्रांत हो गये हैं
सहनशीलता को बड़े शान से
अपने से दूर रख रहे हैं।
असभ्यता, उदंडता की नई
तहरीर लिख रहे हैं
तनिक सहनशक्ति के अभाव में
जोश में मदहोश होकर
मारपीट, हिंसा ही नहीं
हत्या और कत्लेआम तक कर रहे हैं,
जिसकी भारी कीमत भी
हम ही चुका रहे हैं।
हमसे लाख अच्छे तो हमारे पुरखे थे
हमारी नजरों में भले गँवार देहाती थे
पर सहनशीलता में
हमसे कोसों आगे थे,
कम से कम आपा तो नहीं खोते थे,
विचार करके ही आगे बढ़ते थे।
बड़े बड़े विवाद सहनशक्ति के दम पर
बैठे बैठे सुलझा देते थे
आपस में प्रेम भाव के साथ रहते थे।
अपने हों या पराये
बड़े बुजुर्गों से नजरें नहीं मिलाते थे,
उनका मान सम्मान करते थे
परिवार, खानदान की गरिमा का
पूरा ख्याल रखते थे,
सहनशीलता का साफा सदा
सिर पर बाँधकर रखते थे।● सुधीर श्रीवास्तव
हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं,
हमारी सहनशीलता दम तोड़ रही है
हमारी उन्नति की
ये कैसी कहानी कह रही है?
आज हम संभ्रांत हो गये हैं
सहनशीलता को बड़े शान से
अपने से दूर रख रहे हैं।
असभ्यता, उदंडता की नई
तहरीर लिख रहे हैं
तनिक सहनशक्ति के अभाव में
जोश में मदहोश होकर
मारपीट, हिंसा ही नहीं
हत्या और कत्लेआम तक कर रहे हैं,
जिसकी भारी कीमत भी
हम ही चुका रहे हैं।
हमसे लाख अच्छे तो हमारे पुरखे थे
हमारी नजरों में भले गँवार देहाती थे
पर सहनशीलता में
हमसे कोसों आगे थे,
कम से कम आपा तो नहीं खोते थे,
विचार करके ही आगे बढ़ते थे।
बड़े बड़े विवाद सहनशक्ति के दम पर
बैठे बैठे सुलझा देते थे
आपस में प्रेम भाव के साथ रहते थे।
अपने हों या पराये
बड़े बुजुर्गों से नजरें नहीं मिलाते थे,
उनका मान सम्मान करते थे
परिवार, खानदान की गरिमा का
पूरा ख्याल रखते थे,
सहनशीलता का साफा सदा
सिर पर बाँधकर रखते थे।