बेटा - बेटी एक समान
आदर्शवाद दिखाने के लिए
हमनें पाठ्य - पुस्तकों में अपनी
लिखा दिया,
"बेटा - बेटी एक समान"
फिर समाज के अधिकांश लोगों ने
उनके जन्म की खुशियां मनाने से लेकर
पालने - पोसने, शिक्षा - दीक्षा,
नौकरी - चाकरी, शादी - विवाह,
यहां तक कि दोस्तों के साथ
बाहर निकलने, मिलने जुलने के
मानदण्ड नहीं रखें समान,
बेटियों को पराया धन मानकर
देते रहे नैतिकता व शालीनता की नसीहतें,
वैधव्य के लिए माना जाता रहा उन्हें मनहूस
और परित्यकता हुई तो चरित्र दागदार,
लेकिन इसके उलट बेटों के आवारापन को भी
समझते रहे बहुत से लोग अपनी शान,
बेटियों का अपने पिता की सम्पत्ति से
हिस्सा लेना रखा सामाजिक निंदा के दायरे में
ताकि व्यवहारिक तौर पर मालिक रहे
जमीन व सम्पत्ति का बेटा ही
लेकिन अपनी निष्पक्षता दिखाने के लिए
कर दिया बराबर हिस्से का कानूनी प्रावधान,
अपने प्रगतिशीलता,शिक्षा एवं आधुनिकता के
तमाम दावों के बावजूद हमारा समाज
रूढ़ियों में जकड़े रहने को देता है अधिमान,
आश्चर्य नहीं होगा इसमें कोई कि बनी रहे
आने वाले सैंकड़ों सालों तक भी हमारी
लैंगिक भेदभाव पूर्ण समाज के रूप में
वैश्विक पहचान।
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