समानता का अधिकार - सुधीर श्रीवास्तव

समानता का अधिकार

समानता का अधिकार - सुधीर श्रीवास्तव
सुनने कहने में कितना मीठा, प्यारा लगता है "समानता का अधिकार"।

     पर जरा धरातल पर आकर देखिये। हर क्षेत्र में सिर्फ विडंबनाएं हैं। हम सब भी उनका समर्थन निहित स्वार्थों की परिधि में ही करते है। पहले व्यक्तिगत, फिर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सैद्धांतिक रूप से आंकलन करते हैं।

    आजादी के इतने साल बाद भी पुरूष स्त्री में भेद हमें मुंह चिढ़ा रहा है।इसके लिए हमारी मातृशक्तियों में भी ललक और एक राय नहीं है, फिर भी दोषी पुरुषों को ही ठहराया जाता है।

   आरक्षण को किस समानता कि श्रेणी में रखा जाय, जबकि आरक्षण प्राप्त एक बड़ा वर्ग खोल से बाहर नहीं निकल सका है और न ही निकल सकेगा।क्योंकि अधिकांश की निरीह मानसिकता उनकी राह का काँटा है। अयोग्य व्यक्ति को आरक्षण का लाभ देकर व्यक्ति का भला भी पूर्णरुप से हो रहा है, यह विश्वास से कह पाना कठिन है। ऊपर से योग्य व्यक्ति की मानसिकता कुंठित कर हम किसका भला कर रहे हैं।

शिक्षा से लेकर नौकरी तक आरक्षण का लाभ देकर देश/समाज में हम किस समानता पर हम घमंड करते है।आरक्षण का लाभ, जीवन जीने, आर्थिक सुविधा, सामाजिक सहयोग की भावना विकसित करने तक तो उचित है, मगर योग्यता से समझौता व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक के लिए घातक है।जिसके अनेक उदाहरण दिख ही जाते हैं, ऊपर से योग्यता का वास्तविक लाभ से राष्ट्र भी वंचित हो रहा है। हालत यही रहने वाला है।क्योंकि राजनीतिक पार्टियां सत्ता के परिप्रेक्ष्य में ही  इसका दोहन करने पर आमादा है।

जिसका खामियाजा देश को भुगतना निश्चित है।क्योंकि योग्यता निरीह बन रही है और अयोग्यता मालपुए खाकर योग्यता का खुला मजाक उड़ा रही।

      रंगभेद अपने देश में पूरी तरह मिटा नहीं है। जब तब इसके शिकार अपनी पीड़ा बयान कर ही देते हैं। इसका ताजा उदाहरण पूर्व क्रिकेटर एल. शिवराम कृष्णनन के बयान हैं, जिसका दंश वे खुद क्रिकेट जीवन में झेल चुके हैं और अब अपनी पीड़ा को सार्वजनिक कर रहे हैं।

    जाति धर्म के नाम पर विभेद होता है।अपराध तक का विश्लेषण और कार्यवाही बहुत बार इसी आधार पर होता है और हम भी कम नहीं हैं जो अपराध की गंभीरता स्वरूप के बजाय जाति धर्म के चश्मे से देखते हैं।

     जनसंख्या नियंत्रण का सारा खेल किस समानता के दायरे में आता है। शादी विवाह, संबंध विच्छेद में कहां समानता है?

    एक देश, एक विधान, एक संविधान भी संभवतः पूरी तरह सच नहीं दिखता, अलबत्ता सरकार इस दिशा में आगे बढ़ रही है,जो स्वागत योग्य है।

  देश के खिलाफ कार्य संस्कृति, देश को दुनियां के सामने नीचा दिखाने की कोशिशें, भड़काऊ भाषण, देश को गाली देने और उनके खिलाफ होने वाली कार्य संस्कृति कौन सी समानता है। धर्म के नाम पर किसी भी एक वर्ग को खुली छूट को समानता के किस तराजू पर तौलना चाहिए?

      हर क्षेत्र में बहुत सी कम या ज्यादा असमानताएं हैं। बस उसे राष्ट्रहित में देखने और मजबूत इच्छा शक्ति से ही दूर किया जा सकता है। जिसके लिए सरकार की जो जिम्मेदारी है,वो तो है ही, हमारी भी जिम्मेदारी कहीं से कम नहीं है।

    भविष्य को ध्यान में रखते हुए हम सबके साथ सरकारों को भी सचेत होना होगा, अन्यथा सिर पर हाथ रखकर पछताने के सिवा कुछ भी हाथ नहीं आयेगा।तब समानता का अधिकार सिर्फ़ स्लोगन बनकर रह जायेगा।

● सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित,

यह विचार पूरी तरह लेखक के है।

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