लोकतंत्र पर उल्लू हंसता
कोई चैनल खोल के देखो,
बड़े-बड़े दिग्गज लगते हैं,
मानो उनका ज्ञान आंकना,
जनता को बहुत कठिन है ।।
कभी-कभी मैं भी सुनता हूं,
अल्पज्ञों में जोश है दिखता ,
विषय वस्तु का ज्ञान नहीं है,
वही बड़ा अधिवक्ता बनता ।।
जनतंत्र का उद्घोषक बनता,
मनमर्जी से परिभाषा गढ़ता ,
दिन को हरदम रात बताता ,
सच्चा सेवक स्वयं बताता ।।
बड़े समीक्षक हर चैनल पर,
अपना अपना ज्ञान बांटता ,
कोई धर्म का गुरु बता कर,
बड़ा-बड़ा मौलाना बनता ।।
सत्य अहिंसा की परिभाषा,
देख सिखाता स्वयं हत्यारा
जीवों पर दया नहीं आती ,
वही अहिंसक बन बैठा है ।।
लोकतंत्र का दीमक जो है,
डाल का उल्लू सा दिखता है,
अर्थ तंत्र पर कुंडली लेकर,
फन फैलाए जो बैठा है ।।
हरिशंकर परसाई की,
रचना याद बहुत आती है ,
भेढ़ भेड़ियों की पहचान,
क्यों हमें नहीं आ पाई है ।।
हर चैनल के वक्ता को,
आसानी से पहचाना है,
शब्द उगलते चबा चबाकर,
उनके शब्द नहीं हैं अपने ।।
कहां हमारी उठती उंगली,
किसका मूल्यांकन कर लूं,
पीड़ा अपनी कम नहीं होती,
लोकतंत्र पर मैं क्या बोलूं ???
लोकतंत्र में परिभाषाएं !
लाज लजाती भक्ता से,
डाल पर उल्लू बैठा बोले ,
तमसो मा ज्योतिर्गमय। ।।
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