बिन तुम्हारे ???- डॉ हरे कृष्ण मिश्र

 बिन तुम्हारे  ???

बिन तुम्हारे  ???-  डॉ हरे कृष्ण मिश्र

जीवन के मूल्यों को मैंने,

 समझ नहीं पाया है,

जुड़ी है मृत्यु जीवन से,

 इसे समझ नहीं पाया ।।


नदी के ये किनारे दो,

 सागर तट पे मंजिल है ,

नहीं कश्ती न  नाविक है ,

अपना लक्ष्य पाना है ।।


बताओ अब बचा जीवन 

कितना यह तुम्हारा है,

कहां अस्तित्व सागर में,

 नदियों का दिखता है ?


तुम बिन मेरी चाह नहीं है,

जीवन में अवसाद भरा है,

कहीं किसी से मिलने की ,

जीवन में इच्छा शेष नहीं है, ।।


मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि में,

अपने जीवन का विश्लेषण ,

मन करता है सहज कल्पना ,

चल अपनों से मिल लेता हूं ,


चेतन मन मुझको कहता है,

तुम बिन मेरी चाह नहीं है ,

क्या करना  किससे मिलना,

तुम बिन चाहत बची नहीं है ।।


नित्य नई नई कल्पना बनती है,

तुम बिन सब धूंधला दिखता है,

मन सरोज खिलता रहता है ,

बिना तुम्हारे फीका दिखता,।।


मन मंथन करता है नित दिन,

तुम बिन निर्णय नहीं लिया,

मन विश्लेषण कर नहीं पाता,

अपना तो कोई राह नहीं है ।।


काश हमारी अपनी रहती ,

मेरी इच्छा कभी न मरती ,

क्या तुम  सोचा करती हो,

मेरे मन की कमजोरी है ।।


साथ तुम्हारे सजग इच्छाएं ,

मृत प्राय तो बनी आज है ,

मित्रों से मिलना जुलना सब ,

नहीं बचा मेरे जीवन में ।।


कोरी कल्पना कोरी रह गई,

प्रेम तुम्हारा कहां गया है ,

चौवन बसंत बीते संग संग,

उसकी यादें कहां गई है ।।


नैसर्गिक धरती झील किनारे,

सदा वहीं  बैठा करते थे ,

हम ताने-बाने को मिलकर,

वहीं बैठ बुना करते थे ।।


यादें रह गई बिना तुम्हारे ,

मंजिल मेरी बची कहां है,

इकला इकला चलना तो ,

मन कभी नहीं स्वीकारेगा ।।

मौलिक रचना
               डॉ हरे कृष्ण मिश्र
                बोकारो स्टील सिटी
                 झारखंड।

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