vyakul dhara by Dr. Hare krishna Mishra

 व्याकुल धरा

vyakul dhara by Dr. Hare krishna Mishra


आज व्याकुल क्यों धरा आकाश भी बेचैन है,

जलमग्न होती जा रही कैसी विवशता है धरा  ?

हम अधूरे ज्ञान से सोच मेरी है कहां जरा बता ,

निज कर्म को और धर्म को छोड़ हम जा रहे कहां ?


संकल्प हमारा है अधूरा छोड़ पथ से भटक गये ,

विनाश  मेरा दिख रहा , बेचैन  केवल  है धरा ,

चेतना क्यों  शून्य होती  जा रही है आज मेरी ,

संवेदना से दूर होकर कैसी हमारी जिंदगी है। ?


सोच चिंता में पड़ा हूं आज विवस मानव कहां ,

संवेदना सारी धरा की सोच मेरी खो गई क्यों ?

विवशता तो कह रही है डूब जा मझधार में तू ,

चेतना विहीन मानव शून्य  होता  जा रहा है  ।।


विश्व का जो दृश्य आज दिखता जा रहा है ,

क्या धरा जलमग्न होगी यही समस्या है मेरी,

स्वार्थ में संसार घिरता जा रहा है देख आज ,

हम कहां हैं ज्ञात मुझको है नहीं लाचार हूं। ।।


यथार्थ पट को देखकर विचित्रता भी नग्न है,

नग्न  है विवेक मेरा क्यों धरा से दूर हम ?

खो गया चरित्र  मेरा  कर्म से हम दूर  हैं ,

हम प्रकृति की गोद में हो गए हैं मौन क्यों ?


अस्तित्व मेरा आज संकट में पड़ा है ,

स्वार्थ में दिखता नहीं कोई भी अपना ,

स्वप्न वत संसार  में जीना भी क्या है ?

आज पराजित कर्म क्यों तेरा दिखा है ।।?


भूल मत  पूर्वजों को दृढ़ कर संकल्प को,

इंतजार में आज भी तेरी धरा देख मौन है,

समय सदा संकेत देता रह गया है पास तेरे,

मौन को तू त्याग कर खोल अपने हाथ को  ।।


मौलिक रचना

                    डॉ हरे कृष्ण मिश्र
                    बोकारो स्टील सिटी
                    झारखंड ।

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