पुतले पलटवार नहीं करते
उसको जलाकर,
अपने झूठे अहम की
तुष्टि कर लेना आसान है,
इसलिए यह रस्म सदियों से
निभाते आए हो,
जानते हो!
मुश्किल क्या है?
अपने सामने फल-फूल रहे
जिंदा रावणों का दहन करना,
अन्याय के प्रतिकार के लिए
डटकर खड़े हो जाना,
अत्याचारी का ऐसा हश्र करना
कि किसी की सोच में भी नीच
कृत्य न आए,
और वो शायद तुमसे होगा नहीं,
क्योंकि मैंने देखा है तुम्हें
झूठे और पाखंडियों के चरणों में
गिरते हुए,
मैंने देखा है तुम्हें
भीड़ की शक्ल में अकेले निहत्थे
इंसान की हत्या करते हुए,
मैंने देखा है तुम्हें
बलात्कारियों और व्यभिचारियों
के समर्थन में रैलियां निकालते हुए,
अपराध को देख कर भी
अनदेखा करके,
अत्याचार को अपना नसीब मानकर,
अपने निजी स्वार्थ के खातिर
आततायी का समर्थन करते करते
तुम भी पुतले बन चुके हो
और पुतले तो जलते ही हैं
वो कभी प्रतिकार नहीं करते,
वो कभी पलटवार नहीं करते,
वो सब कुछ बर्दाश्त करते जाते हैं
क्योंकि वो मुर्दा होते हैं,
जिंदा लोगों की तरह वो अपने
हक के लिए यलगार नहीं करते।
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