Bhookhe ki darm-Jat nhi hoti by Jitendra Kabir

 भूखे की धर्म - जात नहीं होती

Bhookhe ki darm-Jat nhi hoti by Jitendra Kabir


इस कविता को

पढ़ने वाला उनमें नहीं आता

लिखने वाला भी नहीं,

इसलिए शायद

उसके मन की बात नहीं होती,

पेट में अन्न का एक भी दाना

न जाए कई दिनों तक

तो आसान काटना

कोई दिन, कोई भी रात नहीं होती,

रोटी के लिए जितना तरसोगे

उतना ही जान पाओगे कि 'भूखे' के लिए 

कोई धर्म, कोई भी जात नहीं होती।


रोटी बनी हो चाहे

किसी दलित के घर में

या हो सेंकी गई किसी सवर्ण के द्वारा,

अनाज किसी हिन्दू ने उपजाया हो

या फिर फसल तैयार करने में

पसीना किसी मुस्लिम, सिख, ईसाई,

पारसी, जैन, बौद्ध ने हो बहाया,

'भूखे' के लिए 

किसी के चूल्हे की रोटी हराम नहीं होती,

रोटी के लिए जितना तरसोगे

उतना ही जान पाओगे कि 'भूखे' के लिए

बहुत बार कीमती किसी की जान नहीं होती।


                                      जितेन्द्र 'कबीर'
                                      
यह कविता सर्वथा मौलिक अप्रकाशित एवं स्वरचित है।
साहित्यिक नाम - जितेन्द्र 'कबीर'
संप्रति - अध्यापक
पता - जितेन्द्र कुमार गांव नगोड़ी डाक घर साच तहसील व जिला चम्बा हिमाचल प्रदेश
संपर्क सूत्र - 7018558314

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