Vicharo me Uljha Khud Ko Talashta Mai |विचारों में उलझा खुद को तलाशता मैं
मैं आज 25 वर्ष का हो गया , पता ही नहीं चला ये ज़िंदगी के 25 वर्ष मैंने कैसे बिता दिए | ज़िंदगी की हसरतें आज भी वैसी ही अधूरी है जैसे बचपन में हुआ करती थी , दिन महीने साल बस बीतते जा रहे और लगता है जैसे अभी कल की ही तो बात है ।
मुझे बचपन मे और अब में बस इतना फर्क नजर आता है कि बचपन में ज़िद किया करता था , और ज़िद ना पूरी होती तो रो के खुद को शांत कर लिया करता था , लेकिन आज भी ज़िद अंदर ही अंदर उठती है , पर अब खुद को समझा लिया करता हूँ , बस यही वह मौका होता है जब मुझे अपनी उम्र का एहसास होता है ।
मैं बचपन में बहुत शांत स्वभाव का था , अब भी हूँ , लेकिन अब अंदर कुछ उबलता है , शायद अब शांत नहीं रहना चाहता , चीखना चाहता हूँ , चिल्लाना चाहता हूँ , लेकिन कुछ है ऐसा जो आज भी रोकता है , मैं खोज रहा हूँ उस विचार को ,जो मुझे रोके खड़ा है ।
क्या ये मेरे संस्कार है या मेरा शर्मीला स्वभाव ? ,
कुछ तो है आखिर जो मेरे सब्र को बांधे हुए है , पर तोड़ना है सारे बंधनों को , मुक्त गगन मे उड़ना है मुझे , आखिर परिंदों जैसा बनना है , ये मजहब ,धर्म ,जाति , देश की बातें मुझे समझ में नहीं आती , मुझे तो सरहदों के बिना वाली दुनिया मे उड़ना है , वो सरहदें फिर चाहे धर्म की हो या भाषा की ।
आखिर ये कौन से विचार है जो मुझे रोकते है , परिंदों जैसे स्वतंत्र होने से ?
आखिर विचार ही तो मेरे पंख है , जो मुझे मुक्त गगन में उड़ाते है , लेकिन आज ये पंख ये पंख बंध से गए है , इसमें एक मजबूत धागा समाज का जरूर होगा , लेकिन ये जो भी हो एक दिन तोड़ सारे धागों को और बह जाऊंगा अतरंगी हवाओं के संग , इस विश्व व्यापी गगन को अपनी बाँहों में भरकर अपना लूँगा। तब कोई अपना पराया नहीं होगा ,सब मुझमें और सब में मैं रहूँगा।
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