हिजाब.
खाली जेबों की कसी मुट्ठियाँ
हवा में लहराने को उतर आई है
अरण्य में खिलते अग्निपुष्प से
रंगे सियार बेरंग होने लगे हैं
जुमलों की धूलें उड़ने लगी है
खिजाबी हिजाब दिखने लगे हैं
फटी ऐंड़ियों के रिसते लहू से
लिखी इबारतें उभड़ने लगी है
सियासती चूलें हिलने लगी है
मलबों में दबी महलों की चीख
संसदीय समर में गुंजने लगी है
पिघलते पीड़ के नि:सरित नीर
जमीनी हकीकत को मथ रही है
कीचड़ में कदवा करते गाँव अब
शहरों को चहुँ दिश घेरने लगी है. ++++++++++++++++++++
मौलिक स्वरचित रचना
@ अजय कुमार झा.
मुरादपुर, सहरसा, बिहार.
18/8/2021.
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