देश का मान
जब देश यूनियन जैक की कॉलोनी था तब की बात हैं। उस समय में भी देश को जो सम्मान मिला था वह कभी नहीं भुलाया जा सकता हैं।1928 से 36 तक का समय मेजर ध्यानचंद की बुलंदियों का दौर था। बर्लिन में 1936 में खेली गई प्रतिस्पर्धा में जर्मनी के जितने की पूरी शक्यता थी।१९२८ में एंस्टर्डडम ओलंपिक,१९३२ में लोसएंजेलिस की और १९३६ में बर्लिन की प्रतिस्पर्धाएं उनकी टीम जीती थी। ध्यानचंद की टीम अलग अलग जगहों से चंदा इक्कठा करके प्रतिस्पर्धा में आए थे।भारत में ही नहीं पूरी दुनियां में हॉकी एक सम्मानजनक खेल था उन दिनों।14 अगस्त को जब सभी खिलाड़ियों को अपने कमरे में बुलाया और हाथ से बने तिरंगे को छू के बोला था कि इस तिरंगे की शान के लिए हम खेलेंगे, और दूसरे दिन ध्यानचंद और उनके भाई रूपचंद दोनो बिना जूते पहने खेले थे और प्रतिस्पर्धा में उनकी टीम जीत गई थी।हिटलर भारत को जीतता देख प्रतिस्पर्धा के बीच से उठ के चला गया था, किंतु बाद में मेजर ध्यानचंद को जर्मनी की और से खेलने के लिए आमंत्रण दिया लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया।
एक प्रश्न हैं की १००से ज्यादा साल तक भी सभी देशवासियों के दिल में जिंदा रहने वाले मेजर ध्यानचंद को शत शत नमन।आज उनके नाम से पुरस्कार दिया जाने का तय हुआ और दूसरे ही दिन भारत के नीरज चोपड़ा ने स्वर्णपादक पाया यह बहुत ही आश्चर्य की बात हैं।
अपने देश के जो भी खिलाड़ी हैं ज्यादातर सभी निम्न या मध्यम वर्ग से आते रहे हैं यह भी एक ध्यान देने वाली बात हैं। शायद इसी लिए एक साक्षात्कार में 1983 के हीरो कपिलदेव ने भी सरकार को एक सुझाव दिया है कि सभी खेल के साधनों को करमुक्त कर देना चाहिए ताकि अभी जो खिलाड़ियों को आर्थिक मुसीबतों सामना करना पड़ता हैं,वो न पड़े।
नीरज चोपड़ा ने जो खेल पुरस्कार जीत अपने देश के लिए इतिहास रच डाला हैं और सभी भारतीयों को उन सभी खिलाड़ियों के प्रति बहुत ही मान हैं।
जयश्री बिरमी
सेवा निवृत्त शिक्षिका
अहमदाबाद
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