भूख
भूख की आग से तड़पता है कि
भिखारी हाथ फैलाए भीख मांगता।
कहीं कचड़े में कोई जीर्ण शीर्ण सा
रोटी उठाकर खा रहा।
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कहीं सत्ता की भूख बढ़ रही
निरंकुशता की लौ धधक रही ।
बढ़ रहे हैं पेट और जेब भी
भूख के नये रूप रंग भी ।
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लालच भी मुँह बा रही
घूसखोरी चरम पर बढ़ रही।
कालाबाजारी करने वाले भी
क्षुधापूरति खुलेआम कर रहे।
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वहीं कहीं पर ज्ञानी जन भी ।
ज्ञानवर्धक लेख लिख-पढ़ रहे।
ज्ञान की पिपासा ले डूबते किताबों में।
पिपासु चक्षु ज्ञानवर्धन साहित्य ढूंढते।
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एकान्त शून्य शान्ति में साधुजन
आध्यात्म ध्यान रत दिखे।
संसार से दूर-दूर वे आराध्य को खोजते।
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है भूख पेट की कहीं तो
कहीं सत्ता की भूख दिख रही।
ज्ञान की पिपासा की भूख बढ़ रही।
वही साधुओं में आध्यात्म की भूख जाग्रत हो रही।
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भूख की आग से तड़पता
भिन्न-भिन्न प्राणी है।
चेतना है भिन्न सी,मनःस्थिति भिन्न सी।
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-----अनिता शर्मा झाँसी
-----मौलिक रचना
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