Naari by kamal siwani ramgadh bihar

 नारी

Naari by kamal siwani ramgadh bihar


होती जहाँ नारी की पूजा , वहाँ देव बसते हैं । है वह देवी रूप जगत में , ग्रंथादिक कहते हैं ।। नारी की मर्यादा तो , युग -युगों से विदित है । जग की रचना उसी की , महिमा से ही सज्जित है । लेकिन कतिपय जन कहते , नारी को त्याग का हिस्सा । और उसे साबित करने को , गढ़ते नाना किस्सा ।। आए दिन इस मसले पर वे , हैं सर शब्द चलाते । और नारी की महिमा का हैं , अतिशय मान घटाते ।। कहते निज नारी को त्यागे , होता अविचल मन है । विषतुल्य -सा उसे बताना , उनका नीति कथन है ।। पत्नी के साहचर्य को कहते , धर्म-कर्म में बाधा । इस तरह नारीगण की वे , करते क्षीण मर्यादा ।। इसी हेतु इस मसले पर हैं , कुछ उद्गार भी मेरे । वधू के संग क्या अधम काज हैं , वैवाहिक के फेरे ? नारी को अपमानित कर जो , नीति शब्द सुनाते । उन हाथों से बना जो भोजन , बैठ मगन हो पाते ।। भक्तजनों के घर में गर जो , नहीं नारियाँ होतीं । उन द्वारों पर ज्ञान प्रदाता , नहीं तोड़ते रोटी ।। काम -धाम के बाद सेवक जन , भोजन कहाँ बनाते ? जमा आसनी खुद न और , गैरों को खिला ही पाते ।। नारी है जब विषतुल्य तो , क्योंकर उससे जन्मे ? कहते बुरा उसी को जिसका , खून तुम्हारे तन में ।। दूध पिला और पाल- पोस कर , जिसने बड़ा बनाया । सर्व न्योछावर करके अपना , धरती पर ले आया ।। जो रोने पर रोती आपके , और गाने पर गाती । उसी मात को नीच बताते , तनिक शर्म नहीं आती ? नारी ही तो नाना रूप में , जीवन काल में आती । बेटी ,बहन , माता और दादी , सब कुछ वही कहाती ।। वही तो हम को पल्लवित पुष्पित , करती सदा ही जग में । तन -मन का हर संबल देती , सदा जीवन के मग मेंं ।। माँ के दूध का कर्ज़ जगत में , कौन चुका सकता है ? बहन के बिन कलाई राखी , कौन बाँध सकता है ? दादियों का दर्द उर का , पोतों हेतु जो होता । वंशबेलि ना सूखने पाए , उनको सदा संयोता ।। फिर क्यों निर्लज्ज भाव से कहते , नारी नरक की खानी ? क्या यह पातक कर्म न तेरा , बोलो रे अज्ञानी ? जिस नारी ने जीवन जिया , त्यक्ता रूप में होकर । उसने अपना सारा जीवन , काटा हर पल रोकर ।। दो पहियों का संगम है जब ,जीवन की यह गाड़ी । तो फिर क्यों एकांगीपन की , गाते महिमा सारी ? जीवन की उपलब्धि पाना , आप पे ही निर्भर है । किसी भाँति नारी पर लाँछन , कभी नहीं हितकर है ।। हुए अनेक . संपूज्य .जिन्होंने , नारी को नहीं छोड़ा । कतिपय मुनिवर जन रहे जो , तनिक मुँह ना मोड़ा ।। शंकर, विष्णु आदिक जन क्या , साथ नहीं चलते थे ? क्या वे कभी नारी को अपनी , विषादिक कहते थे ? एक से बढ़कर एक विदुषी , हुई जगत में नारी । जिनकी महिमा से सुवाषित , रही धारित्री सारी ।। फिर क्यों तू उसको पथ-कंटक , आए दिन बताते ? देवी रूप जो हैं वसुधा पर , उनका मान घटाते ? ---- कमल सीवानी , रामगढ़ ,सीवान ,बिहार

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