कविताएं
(1) कविता..
तहरीर में पिता..
ये कैसे लोग हैं ..??
जो एक दूधमुंही नवजात
बच्ची के मौत को नाटक
कह रहें हैं...!!
वो, तहरीर में ये लिखने
को कह रहे हैं कि
मौत की तफसील
बयानी क्या थी...??!!
पिता, तहरीर में क्या
लिखतें... ??
अपनी अबोध बच्ची
की , किलकारियों
की आवाजें... !!
या... नवजात बच्ची...
ने जब पहली बार...
अपने पिता को देखा
होगा मुस्कुराकर... !!
या, जन्म के बाद
जब, अस्पताल से
बेटी को लाकर
उन्होंने बहुत संभालकर
रखा होगा... पालने.. में...
और झूलाते... हुए...
पालना... उन्होंने बुन रखा
होगा... उस नवजात को
लेकर कोई.... सपना..!!
वो तहरीर में उन खिलौनों
के बाबत क्या लिखते..??
जिसे उन्होंने.. बड़े ही
शौक से खरीदकर लाया था..!!
वो तहरीर में क्या लिखतें.... ??
कि जब, उस नवजात ने
दम तोड़ दिया था
बावजूद... इसके वो
अपनी नवजात बेटी में भरते
रहे थें , सांसें...!!
मैं, सोचकर भी कांप जाता हूँ
कि कैसे, अपने को भ्रम में
रखकर एक बाप लगातार
मुंह से भरता रहा होगा
अपनी बेटी में सांसें...!!
किसी नवजात बेटी का मरना
अगर नाटक है... !!!
तो, फिर, आखिर एक बाप
अपनी तहरीर में बेटी की मौत
के बाद क्या लिखता...??
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(2) कविता...
पच्छिम दिशा का लंबा इंतजार..
मंझली काकी और सब
कामों के तरह ही करतीं
हैं, नहाने का काम और
बैठ जातीं हैं, शीशे के सामने
चीरने अपनी माँग..
और अपनी माँग को भर
लेतीं हैं, भखरा सेंदुर से, ..
भक..भक...
और
फिर, बड़े ही गमक के साथ
लगाती हैं, लिलार पर बड़ी
सी टिकुली..... !!
एक, बार अम्मा नहाने के
बाद, बैठ गईं थीं तुंरत
खाने पर,
लेकिन, तभी
डांटा था मंझली काकी
ने अम्मा को....
छोटकी , तुम तो
बड़ी, ढीठ हो, जब, तक
पति जिंदा है तो बिना सेंदुर
लगाये, नहीं खाना चाहिए
कभी..खाना... !!
बड़ा ही अशगुन होता है,
तब, से अम्मा फिर, कभी
बिना सेंदुर लगाये नहीं
खाती थीं, खाना... !!
मंझले काका, काकी से
लड़कर सालों पहले
काकी, को छोड़कर कहीं दूर
निकल गये.. पच्छिम...
बिना..काकी को कुछ बताये.. !!
गांव, वाले कहतें
हैं, कि काकी करिया
भूत हैं,...इसलिए
भी अब कभी नहीं
लौटेंगे काका... !!
और कि काका ने
पच्छिम में रख रखा
है एक रखनी और...
और, बना लिया है, उन्होंने
वहीं अपना घर...!!
काकी पच्छिम दिशा में
देखकर करतीं हैं
कंघी और चोटी और भरतीं
हैं, अपनी मांग में सेंदुर..
इस विश्वास के साथ
कि काका एक दिन.. जरूर...
लौटकर आयेंगे.... !
(3) कविता..
इस धरा पर औरतें.
हम, हमेशा खटते मजदूरों
की तरह, लेकिन, कभी
मजदूरी नहीं पातीं .. !!
और, आजीवन हम इस
भ्रम में जीतीं हैं कि
हम मजदूर नहीं मालिक...
हैं...!!
लेकिन, हम केवल एक संख्या
भर हैं ..!!
लोग- बाग हमें आधी आबादी
कहते हैं..... !!
लेकिन, हम आधी आबादी नहीं
शून्य भर हैं... !!
हम हवा की तरह हैं..
या अलगनी पर सूखते
कपड़ों की तरह ..!!
हमारे नाम से कुछ
नहीं होता...
खेत और मकान
पिता और भाईयों का होता है..!!
कल -कारखाने पति
और उसके,
भाईयों का होता है.. !!
हमारा हक़ होता है सिर्फ
इतना भर कि हम घर में
सबको खिलाकर ही खायें
यदि,बाद में
कुछ बचा रह जाये..शेष ... !!
ताजा, खाना रखें, अपने
घर के मर्दों के लिए.. !!
और, बासी
बचे -खुचे खाने पर
ही जीवन गुजार दें....!!
हम, अलस्सुबह ही
उठें बिस्तर से और,
सबसे आखिर
में आकर सोयें...!!
बिना - गलती के ही
हम, डांटे- डपडे जायें
खाने में थोड़ी सी
नमक या मिर्च के लिए...!!
हम, घर के दरवाजे
या, खिड़की नहीं थें
जो, सालों पडे रहते
घर के भीतर...!!
हम, हवा की तरह थें
जो, डोलतीं रहतें
इस छत से उस छत
तक...!!
हमारा .. कहीं घर..
नहीं होता...
घर हमेशा पिता का या पति
का होता है...
और, बाद में भाईयों का हो
जाता है... !!
हमारी, पूरी जीवन- यात्रा
किसी, खानाबदोश की
तरह होती है
आज यहाँ, तो कल वहां..!!
या... हम शरणार्थी की तरह
होतें हैं... इस.. देश से.. उस
देश .. भटकते और, अपनी
पहचान ..ढूंढते... !!
(4) कविता..
वो, फिर कभी नहीं लौटा..
सालों पहले, एक
आदमी, हमारे भीतर
से निकला और,
फिर, कभी नहीं लौटा... !!
सुना है, वो कहीं शहर , में
जाकर खो गया... !!
वो, घर, की जरुरतों
को निपटाने
निकला था...
निपटाते- निपटाते
वो पहले तारीख, बना
फिर.. कैलेंडर... और, फिर, एक
मशीन बनकर रह गया..... ! !
और , जब मशीन बना तो
बहुत ही असंवेदनशील और,
चिड़चिड़ा , हो गया..!!
हमेशा, हंसता- खिलखिलाता
रहने वाला, वाला आदमी
फिर, कभी नहीं मुस्कुराया..!!
और, हमेशा, बेवजह
शोर, करने लगा...
मशीन की तरह...!!
अब, वो चीजों को केवल
छू- भर सकता था... !!
उसने चीजों को महसूसना
बंद कर दिया था.. !!
उसके पास, पैसा था
और, भूख भी
लेकिन, खाने के लिए
समय नहीं था... !!
उसके, पास, फल था..
लेकिन, उसमें मिठास
नहीं थी..!!
उसके पास , फूल, थें
लेकिन, उसमें खूशबू
नहीं थी..!!
उसकी ग्रंथियाँ, काम के बोझ
से सूख गई थीं... !!
प्रेम, उसके लिए,
सबसे बडा़
बनावटी शब्द बनकर
रह गया... !!!
वो, पैसे, बहुत कमा रहा
था.. !!
लेकिन, खुश
नहीं था...!!
या, यों कहलें की
वो पैसे, से
खुशियाँ, खरीदना
चाह रहा था... !!!
बहुत दिन हुए
उसे, अपने आप से बातें
किये..!!
शीशे, को देखकर
इत्मिनान
से कंघी किये..!!
या, चौक पर बैठकर
घंटों अखबार पढ़े और
चाय, पिये हुए..
या, गांव जाकर, महीनों
समय बिताये...!!
पहले वो आदमी गांव
के तालाब, में मछलियाँ
पकडता था...
संगी - साथियों के साथ
घंटों बतकही करता था... !!
पहले, उसे बतकही करते
हुए... और
मछली पकड़ते
हुए.. बडा़... आनंद आता..
था... !!
लेकिन, अब, ये, सब , उसे
बकवास के सिवा
कुछ नहीं लगता... ! !
फिर, वो, आदमी दवाईयों
पर, जिंदा रहने लगा...!!
आखिर,
कब और कैसे बदल
गया... हमारे भीतर का वो..
आदमी..??
कभी कोई, शहर जाना
तो शहर से उस आदमी के
बारे में जरूर पूछना...!!
(5) कविता..
किसान पिता
पिता, किसान थे
वे फसल, को ही ओढ़ते
और, बिछाते थे..!!
बहुत कम- पढें लिखे
थे पिता, लेकिन गणित
में बहुत ही निपुण हो
चले थे
या, यों कह लें
कि कर्ज ने पिता
को गणित में निपुण
बना दिया था...!!
वे रबी की बुआई
में, टीन बनना चाहते
घर, के छप्पर
के लिए..!!
या फिर, कभी तंबू
या , तिरपाल, वो
हर हाल में घर को
भींगनें से बचाना चाहते
थें.. !!
घर, की दीवारें,
मिट्टी की थीं, वे दरकतीं
तो पिता कहीं भीतर से
दरक जाते..!!
खरीफ में सोचते
रबी में कर्ज चुकायेंगे
रबी में सोचते की खरीफ
में.. !!
इस, बीच, पिता खरीफ
और रबी होकर रह जाते... ..!!
उनके सपने, में, बीज, होते
खाद, होता..... !!
कभी, सोते से जागते
तो, पानी - पानी चिल्लाते..!!
पानी , पीने के लिए नहीं ..!!
खेतों के लिए.. !!
उनके सपने, पानी पे बनते
और, पानी पर टूटते.. !!
पानी की ही तरह उनकी
हसरतें भी क्षणभंगुर होती.... !!
उनके सपने में, ट्यूबल होता,
अपना ट्रैक्टर होता.. !!
दूर- दूर तक खडी़
मजबूत लहलहाती हुई
फसलें होती... !!
बीज और खाद, के दाम
बढते तो पिता को खाना
महीनों
अरुचिकर लगता.. !!
खाद, और बीज के अलावे,
पिता और भी चिंताओं से
जूझते..!!
बरसात में जब, बाढ़
आती, वो, गांव के सबसे
ऊंचें, टीले पर चढ जातें..
वहां से वो देखते पूरा
पानी से भरा हुआ गांव ..!!
माल-मवेशी
रसद, पहुंचाने, आये हैलिकॉप्टर
और सेना के जवान..!!
उनको, उनका पूरा
गांव , डूबा हुआ दिखता.. !!
और, वे भी डूबने लगते
अपने गांव और, परिवार
की चिंताओं में
बन्नो ताड़ की तरह
लंबी होती जा रही थी..
उसके हाथ पीले
करने हैं....!!
भाई, शहर में
रहकर पढताहै, उसको
भी पैसे भेजने हैं..!!
बहुत, ही अचरज की बात है
कि, वे जो कुछ करते
अपने लिए नहीं करते..!!
लेकिन, वे दिनों- दिन
घुलते जातें. घर को लेकर
बर्फ, की तरह पानी में ..
और, बर्फ की तरह घर
की चिंता में एक दिन..
ठंढे होकर रह गये पिता ... !!
(6) कविता..
मेहनत कश हाथ
चाय बगानों में काम
करने
वाली सुमंली ने देखा
बढते, तेल का भाव
आटा और, चावल का
भाव ..
और तो और, इस बीच
रिक्शे से आने - जाने
का किराया भी बढा !!
दस - की जगह बीस रुपये
हो गया किराया .. !!
लेकिन, नहीं बढी उसकी
मजदूरी पिछले दस सालों से,
कभी..! !
वो अपनी साडी़
में पैबंद लगाती रही..
अलबत्ता, इन दस
सालों में
वो बदस्तूर खटती
रही ..
गर्मी की चिलचिलाती
हुई धूप में भी...
जाड़े के बहुत ठंढ
भरे दिनों में भी
तब, जब हम गर्म
लिहाफ
में दुबके पडे रहते थें.. !!
ताकि, हमारी प्याली में
परोसी जा सके गर्मा - गर्म
चाय.. !!
उस, चाय, की प्याली को
पीते हुए हम पढते रहे
अखबार,
तमाम दुनिया- जहान
के मुद्दे...
मंदिर मस्जिद, लव - जेहाद ,
हिंदू- मुसलमान , .. ..
अमेरिका- यूरोप,
सीरिया - इराक, युद्ध,
खेल और मनोरंजन..
तमाम मुद्दों पर हमने
चर्चा की सिवाय
सुमंगली के... मुद्दों के..!!
(7) कविता..
निरीह लडकियां...
निरीह, लडकियां भी लेतीं हैं
सांस, इस धरा पर..
, जैसे और लडकियां
लेतीं हैं सांस...!!!
उनके, भी होते हैं
दो, हाथ दो, पैर
और दो आंखें... !!
काकी, अक्सर कहतीं थीं
लडकियों को ज्यादा जोर
से नहीं हंसना चाहिए...
ज्यादा जोर से हंसने से
"लडकियां " बदचलन हो
जाती हैं.. !!
काकी आगे कहतीं-
हंसना है तो, मुंह पर
कपड़ा रखकर हंसो
हंसी बिल्कुल भी... !!
बाहर, नहीं निकलनी
चाहिए...
हंसी जरा सी
बाहर निकली और
लडकियां, बदचलन हो
जाती हैं..!!
हमारे घर में हमारी एक
बुआ रहतीं थीं...
रोज सुबह - उठकर गंगा नहाने
जाती..
गाय को हर वृहस्पतिवार
को चना और गुड़ खिलाती..
सारे धार्मिक कर्म- कांड करती..
मनौतियां मांगती...
आस- औलाद.. के
लिए..!!
और... फूफाजी की
वापसी के लिए...
क्योंकि, बुआ
नि:संतान
थी...
और.. फूफा सालों
बाद भी फिर कभी नहीं
लौटे..
बाद, में पता चला फूफा जी
ने दूसरी शादी कर ली है..
बुआ, अलस्सुबह ही उठतीं..
चिड़ियां-चुनमुन के उठने से
बहुत पहले...
घर, के बर्तन-बासन से लेकर
झाड़ू- बुहारू तक करती..
खेतों में हल चलातीं..
फसलों को पानी देती..
काकी कहतीं कि , फूफाजी
के छोडने से पहले बुआ बहुत
हंसती थीं..
याकि लोग कहते कि
तुम्हारी बुआ बदचलन हैं
इसलिए भी फूफाजी ने
उन्हें छोड़ दिया है ...
फूफाजी के चले जाने के
बाद, बुआजी उदास-सी
रहने लगीं... फिर, वे कभी
खिलखिलाकर नहीं हंसीं..
छाती-फाडकर
समूचे, घर और खेतों
का काम अकेली
करने वाली
बुआ.. जब हंसती - बोलतीं
नहीं थीं तो वो आखिर, बदचलन
कैसे हो गई.... !!???
(8) कविता..
बचे रहने देना..
बचे रहने देना..
शहर का कोई
पुराना टूटा-किला
खंडहर...!!
जहां से सुनाई पडे उनके
हंसने - बोलने की आवाजें..!!
बचे रहने देना..
पेडों की छांव
जहां, प्रेमी लेटे-
हों अपनी प्रेमिका
की गोद
में... !!!
और, प्रेमिका सहला
रही हो अपने प्रेमी
के बाल !!
बचे रहने देना
पार्क का कोई अकेला
बेंच, जहां, बहुत ही करीब
से वो अपने सांसों की गर्माहट
को महसूस कर सकें !!
और , ले सके
अपने -अपने हाथों
में एक- दूसरे का हाथ..!!
बचे रहने देना
नदी का वो खास किनारा
जहां, वे अपने मन की
कह सकें बात... !!
एक, ऐसे समय में
जब, कंक्रीट के जंगल
तेजी से उगाये जा रहें हैं !!
और, हमारे बीच से लगभग
गायब, हो चुका है प्रेम.. !!
(9) कविता..
कंधे....
पालकी ढोने वाले
कहार, से लेकर, मिट्टी
ढोने
वाले मजदूर तक के कंधे
छिल जातें हैं.. दु:खों से.. !!!
कविता, सुख की नहीं
हमेशा दुख की लिखी
जानी चाहिए.. !!
दु:ख, हमेशा गाढा और
ठोस होता है..!!
जो स्थायी तौर पर दर्ज
होता है, उनके कंधों पर.. !!
उनके कंधे छिल जातें
हैं पालकी ढोते...
और, मजूरी
करते हुए.. !!
छिले हुए और
जख्मी कंधों पर भी.. !!
होती हैं - बहुत सारी
जिम्मेदारियां.. !!
मां-बाप,
पत्नी-बच्चे, हारी - बीमारी.. !!
जिसके नीचे बहुत ठोस
होता है, उनका दु:ख
और दर्द... !!
जिसे हम कभी देख नहीं पाते.. !!
(10) कविता...
पिता पुराने दरख़्त की तरह होते हैं!
आज आंगन से
काट दिया गया
एक पुराना दरख़्त!
मेरे बहुत मना करने
के बाद भी!
लगा जैसे भीड़ में
छूट गया हो मुझसे
मेरे पिता का हाथ!
आज,बहुत समय के
बाद, पिता याद
आए!
वही पिता जिन्होनें
उठा रखा था पूरे
घर को
अपने कंधों पर
उस दरख़्त की तरह!
पिता बरसात में उस
छत की तरह थे.
जो, पूरे परिवार को
भीगनें से बचाते !
जाड़े में पिता कंबल की
तरह हो जाते!
पिता ओढ लेते थे
सबके दुखों को !
कभी पिता को अपने
लिए , कुछ खरीदते हुए
नहीं देखा !
वो सबकी जरूरतों
को समझते थे.
लेकिन, उनकी अपनी
कोई व्यक्तिगत जरूरतें
नहीं थीं
दरख़्त की भी कोई
व्यक्तिगत जरूरत नहीं
होती!
कटा हुआ पेंड भी
आज सालों बाद पिता
की याद दिला रहा था!
बहुत सालों पहले
पिता ने एक छोटा
सा पौधा लगाया
था घर के आंगन में!
पिता उसमें खाद
डालते
और पानी भी!
रोज ध्यान से
याद करके!
पिता बतातें पेड़ का
होना बहुत जरूरी
है आदमी के जीवण
में!
पिता बताते ये हमें
फल, फूल, और
साफ हवा
भी देतें हैं!
कि पेंड ने ही थामा
हुआ है पृथ्वी के
ओर - छोर को!
कि तुम अपने
खराब से खराब
वक्त में भी पेंड
मत काटना!
कि जिस दिन
हम काटेंगे
पेंड!
तो हम
भी कट जाएंगें
अपनी जडों से!
फिर, अगले दिन सोकर
उठा तो मेरा बेटा एक पौधा
लगा रहा था
उसी पुराने दरख़्त
के पास ,
वो डाल रहा था
पौधे में खाद और
पानी!
लगा जैसे, पिता लौट
आए!
और वो
दरख़्त भी
महेश कुमार केशरी
C/O - मेघदूत मार्केट फुसरो
बोकारो झारखंड
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