"माँ"
आज देखा है चेहरा अपनी माँ का मैंने।
उभरती लकीरों और आंखों का गहना।।
मुश्किल बड़ी रास्ते छोटे, उसका स्त्री होना।
उसके खामोश होंठ और आंखों से कहना।।
शून्य सी निहारती वो अपलक सी देखती वो।
उसके मन की गहराई मेरी बेचैनी का बढ़ना ।।
निष्ठुर सी हो गई है ये जताती है सबको वो।
मगर अंदर ही अंदर किसी उम्मीद का पलना।।
कभी बेबस लगती कभी गजब का आत्मविश्वास।
उसके सूखे होंठों पर मिश्रित भाव उभरना।।
वो लड़ रही थी कभी खुद से कभी जमाने से।
वो चाहती थी अपनी मुट्ठी को सहेज कर रखना।।
मैं कर रही थी कोशिश समझने की, मगर कैसे?
उसकी पीढा़ बेचैन कर गई रूढ़िवादिता का गहना।।
क्या तोड़ पाउंगीं समाज के खोखले रिवाजों को?
क्या देख पाउंगीं उसका कहकशाँ लगाकर हंसना?
पूनम उदयचंद्रा , मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश )
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