Kavita kaisa dharm tumhara by kamal siwani

 कैसा धर्म तुम्हारा ?

Kavita kaisa dharm tumhara by kamal siwani


कहाँ से तूने अपनाए , जीवन का अजब पहाड़ा ? एक दूजे में भेद तू करते, कैसा धर्म तुम्हारा ? ऊँच--नीच भाव पूरित हो , रखते मन में खाई । द्वेष- जलन की कुटिल कटारी , है तेरी अनुयायी ।। जहाँ विश्व परिवार ये शिक्षा , हमें पढ़ाई जाती । वहाँ तू सिमटे खुद में रहते , केवल अपनी जाति ।। उससे आगे हित और का , तुमको नहीं सुहाता । इसीलिए ना भूल किसी से, रखते दिल का नाता ।। औरों का रोना ना तेरे , उर को द्वेलित करता । तभी तो तू ना कभी भी बनते , उनके दुख का हर्ता ।। उल्टे उनकी करुण चीख पर , तुम हो जश्न मनाते । लगता जैसे तीनों लोक का , सुख तू स्वर्गिक पाते।। दिल पे हाथ ना धरकर सोचते , सबका ही मंगल हो । सुखमय जीवन होवे सबका , कहीं नहीं दंगल हो ।। सबके जीने में ही होगा , जीवन सुखमय अपना । इसीलिए हो धर्म ये अपना ,सबके हित का सपना ।। सबके हर्षित रहने में ही , हर्ष का अनुभव होगा । वरना किसी के रोने पे , अपना हित कब होगा ? जाति - धर्म से ऊपर उठकर , व्यापक हित में सोचें । बहते अश्रु जहाँ भी देखें , जितना हो जा पोंछें ।। भूख - प्यास है परम सच्चाई , सब में ही तो होती । जिससे व्याकुल होकर के , हर कोई आत्मा रोती ।। केवल अपनी ही क्षुधा की , पीड़ा हम ना जानें । बल्कि और जनों के तड़पन , को भी तो पहचानें ।। यही धर्म हम मानव का है , इससे कोई न दूजा । सच पूछो तो अखिल जगत में , यही है सच्ची पूजा।। -- --- कमल सीवानी ,रामगढ़ ,सीवान ,बिहार

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