मुक्ति
किसी डांट-डपट से बेपरवाह हो
मन चाहता है खेलना मनमफिक़ खेल
जो बन्धे न हों बहुत अनुशासन मेँ
परे हों कड़े नियमों से।
मन बहुत देर तक अंदर न थमता
और बहुत देर तक बाहर न रमता
समेट लेना चाहता है अचानक विस्तार को
सीमा के अंदर
उस विस्तार को जो हुआ था लगातार मगर धीरे-धीरे।
अंदर जो जाता हूँ अक्सर यह पाता हूं
कि धूल,मिट्टी के दाग -धब्बों के रूप मे
अपने नहीं वरन मेरे ही पैरों से
अंदर घुस आता है बाहर भी
जो किसी कोने मेँ छुप पसर जाना चाहता है
पूरा ही पूरे मेँ।
खटकने,अटकने या भटकने के बजाय
इन दाग,धब्बों को मिटाने की
और बाहर को बाहर धकेल भगाने की
तथा अन्तर को साफ-सुथरा बनाने की
लगातार चलने वाली प्रक्रिया ही तो है मुक्ति।
-वीरेंद्र प्रधान
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