कर्म ही ईश्वर
क्या ईश्वर मिलता है हमको , अंग भभूत रमाने में ?
क्या ईश्वर मिलता है हमको , हठ का योग अपनाने में ?
ईश्वर मिलता हमें कदाचित , ढोल - मृदंग बजाने में ?
ईश्वर मिलता हमें कहाँ कब , ऊँचे स्वर में गाने में ?
ईश्वर ने कब हमें बताया , जा निष्क्रिय बन जाओ ?
कर्म - धर्म सारे छोड़ अपने , नाम मेरा बस गाओ ?
केवल नाम रटन में ही बस , सारे दिन कटेंगे ?
जीने हेतु भोजन - पानी , किसके किए मिलेंगे ?
भौतिक साधन जिनके बल पर , जीवन यह पलता है ।
बिन उसके कोई भी प्राणी , एक पग ना चलता है ।।
उन्हें लाकर बोलो हमको , कौन खरीदकर देगा ?
उसके बदले हमसे कोई , कुछ भी ना वो लेगा ?
अगर दिया उसका लेंगे तो , पौरुष हममें होगा ?
सोचें अपना आतम बल तब , जरा भी मुखरित होगा ?
ईश्वर ने है हमें बनाया , कर्म यहाँ करने को ।
ना कि केवल योगी बनकर , भू पर विचरने को ।।
हाथ - पाँव ये मिले हैं हमको , केवल धूनि रमाने ?
नाम लेकर ईश्वर का केवल , भक्ति के पद गाने ?
इसी ढर्रे पर सब प्राणी जन , चलने अगर लगेंगे ।
फिर तो सारे काज जगत के , कैसे भला चलेंगे ?
छोड़कर सारी अकर्मण्यता , ज्ञान यही अपनाएँ ।
कर्म ही ईश्वर अखिल जगत में , उसी में उसको पाएँ ।।
-- कमल सीवानी ,रामगढ़ , सीवान ,बिहार
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