एक रूपया-सिद्धार्थ पाण्डेय

एक रूपया

एक रूपया-सिद्धार्थ पाण्डेय
एक रुपया में खुश हो जाने वाले ,दिन की बात निराली थी।
जेबें तो लिबाज़ में अनेकों थीं,पर सारी की सारी खाली थी।

मेरे हम उम्रों को याद हो शायद हर एक किस्सा बचपन का,
सौंधी खुशबू हर घर में थी और अगल बगल हरियाली थी।

तपती गर्मी में पेड़ के नीचे ,दिन गुजारा करते थे।
दोस्तों को हम अनगिनत ,नामों से पुकारा करते थे।

बैठकर दोस्तो के साथ अनगिनत कहानी गढ़ते थे,
हवा में उड़ने की और जादूगरी करने की सोच खयाली थी।

एक रुपया में खुश हो जाने वाले ,दिन की बात निराली थी।
एक रुपैया जेब में रखकर सीना टाइट होता था।

एक रुपया जेब में है ये सबसे हाइलाइट होता था।
स्टाइल में चलना उस टाइम आम बात हुआ करता था,

हीरो बनने का भूत चढ़ा था ,पर सोच सदा बवाली थी।
एक रुपया में खुश हो जाने वाले ,दिन की बात निराली थी।

-सिद्धार्थ गोरखपुरी


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