चोर छिपा बैठा है मन में
चोर छिपा बैठा है मन में
मैं ढूंढ रहा हूं दूसरे तन में,
कैसी विडंबना है जीवन की
आरोपित करता मैं किसको ?
बड़ी जलन जीवन जीने में,
मृत्यु लोक तो शोक भरी है ।
यहां न कोई ठोर ठिकाना,
ले चल मुझको दूसरे तट पर। ।।
बात कहूं मैं किसी से अपनी,
ऐसा कोई मित्र नहीं है ,
जाने अनजाने में किसको,
कैसे समर्पित कर दूं तन मन। ।।
खोज रहा हूं गुरु हो अपना,
मानस पट पर कुछ तो लिख दे,
विषयों पर दो शोध किया है,
अपने पर कोई शोध नहीं है। ।
जीने का कोई अर्थ नहीं है,
रहना फिर भी दुनिया संग है,
यही विडंबना जीवन की है
सोच बहुत मैं घबराता हूं। ।।
जीना भी क्या जीना है,
सुख-दुख के तट खाली हैं।
मौन बना दर्शक बैठा हूं
यही विडंबना मेरी है। ।।
सोच समझकर मैं कहता हूं,
मेरी दुनिया बहुत है छोटी ,
ले चल मुझे तू अपने संग संग
जिस तट पर और कोई नहीं हो। ।।
बहुत साध्य जीवन की अपनी
कौन कला जीने की होगी।
विषय वस्तु से बहुत दूर हूं,
लिखने का औचित्य कहां है। ?
फिर भी कुछ कुछ लिख लेता हूं
अंदर से बिल्कुल खाली हूं,
यह भी कैसा जीवन दर्शन,
अपने को उलझा रखा हूं। ।।
तथास्तु,,,,,,, डॉ हरे कृष्ण मिश्र
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